(काफ़ी हूँ मैं – ख़ुद के लिए)

रचनाकृति पब्लिशिंग के बैनर ये पहली क़िताब, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी ने बुनी। आम लोगों की आम सी ज़िन्दगी के तानों-बानों ने सादगी और नफ़ासत एक ऐसी चित्रयवनिका (टेपेस्ट्री) बनाई है जिसकी बुनावट दिखने में थोड़ी खुरदरी मगर छूने में बेहद मुलायम और नाज़ुक महसूस होती है। अक्सर हम अपनी हर छोटी-बड़ी ख़ुशी के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं। हर छोटी ज़रूरत, यहाँ तक कि अपने साथ भी एकांत में शांति नहीं पाते। ज़िंदगी की भागदौड़ में खुद का मान रखना, खुद पर भरोसा रखना और जब टूटें तो खुद को जोड़ना भूल जाते हैं। मगर अब ‘अपने मरे स्वर्ग नहीं दिखता’, तब खुद को टुकड़ा-टुकड़ा समेटते हैं, बनाते और फिर से आकार लेते हैं। तब पहले अपना प्याला खुद भरते हैं और फिर अपनी ख़ुशियाँ और अपने आप को दूसरों से बाँटते हैं और अपने आप में पर्याप्तता पाते हैं। ये एहसास होता है कि काफ़ी हूँ मैं…ख़ुद के लिए। इसी एहसास को लेखकों ने अपने अनुभवों या अवलोकन से जन्मी कहानियों में बख़ूबी बयान किया है। किताब की सम्पादिका और रचनाकृति पब्लिशिंग की संस्थापक रचना कुलश्रेष्ठ इस फूल से कोमल एहसास को संकलित कर आपकी नज़र लायीं हैं।
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